लॉक-डाउन : एक सफर प्रवासी से शरणार्थी तक
लॉक-डाउन : एक सफर प्रवासी से शरणार्थी तक
01 मई मजदूर दिवस, मजदूरों का दिन और इस दिन एक बड़ी ही अच्छी खबर पढ़ने को मिली की एक विशेष रेलगाडी 1200 मजदूरों को लेकर तेलंगाना से झारखण्ड के लिए रवाना हो चुकी है और एक रेलगाड़ी आज शाम को ओडिशा से केरल के लिए रवाना होगी जो 1000 मजदूरों को उनके घर पहुंचाएगी | और ऐसी ही और भी कई रेलगाड़ियां देश भर में चलाई जाएंगी जिनके द्वारा लोग परदेश से अपने अपने घर जा पाएंगे | खबर पढ़ते ही मन मैं एक अच्छा भाव उत्पन्न हुआ पर साथ ही कुछ प्रश्न भी उत्पन्न हुए कि -
ये फैसला केंद्र सरकार ने किसके दबाव मैं आ के लिया है ?
सरकार को ये ही करना था तो फिर तब हज़ारो प्रवासी मज़दूरों को पैदल चलकर अपने गांव क्यों जाना पड़ा ? क्या सरकार को अब देश में कोरोना की स्थिति में सुधार दिख रहा है ?
सरकार जो फैसला आज ले रही है की मज़दूरों और अन्य लोगो को उनके मूल स्थान तक पहुंचना है, ये फैसला उसने आज से 40 दिन पहले क्यों नहीं लिया जब पूरे देश में लॉक डाउन लगाया गया था ?
क्या सरकार अब ये मान चुकी है की इन प्रवासियों को संभालना उसके बूते की बात नहीं रही ?
या सरकार ये मान चुकी है की उससे प्रारम्भ में जो गलती हुई है उसे सही करने की कोशिश में वो भुसे पर लीपने का काम कर रही है ?
इनके वास्तविक जवाब तो केवल सरकार के ही पास है |
मुझे समझ नहीं आ रहा की सरकार के इस फैसले की प्रशंसा करूं या समीक्षा करूं, या केवल समीक्षा करूं क्यूंकि प्रशंसा तो सरकार स्वयं कर ही लेगी |
मुझे याद है 21 मार्च 2020 का वो दिन जब माननीय प्रधानमत्री जी ने देश की जनता से एक दिवसीय जनता कर्फ्यु के लिए आव्हान किया था | लोगो ने बढ़ चढ़ कर इस जनता कर्फ्यु का समर्थन किया और शाम 5 बजे ताली और थाली बजा कर उसे पूर्ण रूप से सफल बनाया |
तब तक देशवासियों को ये नही मालूम था की अगले 50 दिनों में देश की सूरत ही बदल जाएगी | लोग ये सोच रहे थे की अब आगे क्या होने वाला है | लोगो को कतई अंदाजा नहीं था की आगामी 50 दिन के लिए पूरा देश पूरी तरह बंद हो जाने वाला है | और वो ऐतिहासिक तारीख आ गई, 24 मार्च 2020, जब माननीय प्रधानमंत्री ने दोबारा देश को सम्बोधित किया और पूरे देश में आगामी 21 दिनों के लिए सम्पूर्ण लॉक डाउन घोषित कर दिया | देश के इतिहास में सबसे बड़ी अनियोजित तालाबंदी पहले कभी नहीं हुई | सम्पूर्ण देश बंद, सारे उद्योग धंधे बंद, यातायात के सारे साधन बंद जो जहां था वो वहीं का वहीं रह गया |
हम जानते है की हमारे देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या अपने गांव से नौकरी की तलाश में शहर आती है ताकि वो अपनी और अपने परिवार की जीविका चला सकें | जरा कल्पना करे ऐसे लोगो की जो अपने गांव से सैकड़ों हजारों किलोमीटर दूर शहर आ कर अस्थाई नौकरी करते है जिसके द्वारा उन्हे कोई स्थाई आय नहीं होती है | उनमे से कोई रिक्शा चलता है, कोई किसी की गाड़ी चलता है, कोई किसी दूकान पर काम करता है, कोई किसी के घर में काम करता है और भी न जाने कितनी ही प्रकार के काम ऐसे लोग करते है और न केवल अपना जीवन यापन करते है बल्कि अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने गॉंव भी भेजते है ताकि वहां रह रहा शेष परिवार भी अपना जीवन काट सके |
माननीय मोदी जी के लॉक डाउन के आव्हान ने उन सभी लोगो की नौकरियो और सपनो को एक झटके में समाप्त कर दिया, उनके भीतर अगर कुछ शेष रह गया तो उनकी अधूरी जिम्मेदारियां और एक डर की अब बिना नौकरी के, बिना पैसों के इस परदेश में कैसे रहा जा सकता है ? उन्हें अपने और अपने परिवार के लिए खाने का इंतजाम करना है, जहाँ वे रह रहे है वहां का किराया उन्हे देना है और कुछ पैसा हमेशा की तरह घर भी भेजना ही है | पर ऐसा होगा कैसे ? उसकी आजीविका को तो लॉक डाउन खा गया |
लोगो को लगा की इस स्थिति में 21 दिन कैसे गुजरेंगे ऐसी स्थिति में तो 21 घंटे गुजरना भी कठिन लग रहा है | बस फिर क्या था लोगो ने अपनी जरुरत का सामान समेटा, अपने पत्नी बच्चों को लिया और अपने गॉंव के लिए निकल पड़े | परन्तु जब वे स्टेशन या बस स्टेण्ड आए तो मालूम चला की रेल और बस तो अनिश्चित काल के लिए बंद कर दी गई है | अब उन पर क्या गुजरी होगी सोचिये, की वे सभी अपने अपने घरो की और पैदल ही निकल लिए, वे घर जो 1 या 2 किलोमीटर दूर नहीं है इतने दूर है की हम और आप जैसे लोग शायद कार में बैठ के भी थकान महसूस करेंगे | लोग 200 , 300 , 500, 1000 किलोमीटर अपने बच्चों को लेकर भूखे प्यासे पैदल चले और 4 दिन 5 दिन 7 दिन लगातार पैदल चल कर अपने गॉंव पहुंचे |
ध्यान देने वाली बात ये इधर लॉक डाउन की घोषणा हुई और उधर हजारो की संख्या में प्रवासी लोग अपने अपने गॉंवों के लिए परिवार सहित पैदल ही निकल पड़े | पूरे देश में लॉक डाउन लागू हो चूका था चप्पे चप्पे पर पुलिस और प्रशासन था | फिर इतनी विशाल भीड़ पूरे देश में एक साथ सड़कों पर कैसे और कहां से निकल आई ? किसी ने उन्हें रोका नहीं उन्हें अस्वासन नहीं दिया की वे कही नहीं जाएं वे सरकार की और प्रशासन की जिम्मेदारी है उनके भोजन और आवास की उचित व्यवस्था की जाएगी |
निसंदेह केंद्र सरकार को भी इस सब की पूर्ण जानकारी थी और उन्होंने तत्काल राज्य सरकारों को निर्देशित किया गया की ऐसे प्रवासियों के पलायन को रोका जाए और उनको राहत केम्पों में ठहराया जाए और उनके भोजन और स्वास्थ की उचित व्यवस्था की जाए | आनन फानन में राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार के आदेश की खाना पूर्ति हेतु राहत केम्पों की व्यवस्था की किन्तु न तो राज्य सरकारों ने प्रवासियों को वह रोकने में रूचि दिखाई और नहीं प्रवासियों ने वहाँ रुकने में रूचि दिखाई | मार्ग में ही उन को कभी स्थानीय प्रशासन और कभी स्थानीय जनता के द्वारा खाने पीने की वस्तुएं उपलब्द्ध करवा दी जाती थी | ऐसे में उन प्रवासियों के साथ कई अमानवीय कृत्य प्रसाशन के द्वारा किये गए जैसे कभी उनपर लाठियां भांजी गई तो कही उन पर स्वच्छीकरण के नाम पर पानी और केमिकल की बौछारे मारी गई |
यहाँ अचंभित करने वाली बात ये नहीं है की लोग इतना पैदल चले बल्कि अचंभित करने वाली बात ये है की लोगो के भीतर सरकारी तंत्रों के प्रति किस स्तर का डर एवं अविश्वास है की उसके आश्वासनों पर भरोसा करने के स्थान पर लोगो ने इतना पैदल चल कर अपने गॉंव जाना ज्यादा हितकर समझा | क्यूंकि लोगो को देश की विकेन्द्रीकरण की निति पर भरोसा नहीं है |
भारत में कुल श्रम क्षेत्र दो भागो में विभाजित है संगठित और असंगठित| इनमे भी देश का 93% श्रमिक असंगठित क्षेत्रों में काम करता है और यह काम उसे अपने मूल गॉंव से सैकड़ों किलोमीटर दूर परदेश में मिलता है वहाँ वह रोज कमाता है रोज खाता है और उसी में से एक हिस्सा अपने गॉंव भी भेजता है| वह जीवन के मूलभूत साधनो के आभाव में अपना जीवन यापन करता है | ऐसे व्यक्ति को जब मालूम चला की देश अगले 21 दिनों के लिए पूर्णतः बंद है तो वो घबरा गया और पैदल ही अपने गॉंवो के लिए निकल पड़ा|
ऐसा कतई नहीं हुआ की मोदी जी ने प्रवासी लोगो को ये भरोसा नहीं दिलाया की उनकी मदद की जाएगी, उन्होंने तो एक ऐतिहासिक राहत पैकेज की घोषणा की जिससे देश का खजाना लोगो के लिए खोल दिया गया | परन्तु पहले लॉक डाउन लगाया उसके तीन दिन बाद एक पूर्णतः अनियोजित राहत पैकेज की घोषणा की गई | केंद्र सरकार के पास राहत वितरण की ना तो कोई योजना थी और नहीं ऐसे लोगो की कोई सुनियोजित जानकारी थी जिन्हे वास्तविक तौर पर राहत की आवश्यकता थी |
राज्य सरकारों ने पूरी तरह से राहत वितरण में सहयोग नहीं दिया शायद इसलिए क्यों की इन प्रवासियों में से अधिकतर ऐसे है जो उस राज्य के नागरिक ही नहीं है और जो नागरिक नहीं उसका वोट नहीं और जिसका वोट नहीं उसे राहत देने से क्या लाभ |
आज लॉक डाउन के 40 दिन बाद सरकार उन प्रवासियों को विशेष रेलगाड़ियों से उनके मूल स्थानों तक पंहुचा रही है, ऐसा सरकार ने लॉक डाउन लगते ही क्यों नहीं किया ? क्यों प्रवासियों को मजबूर होना पड़ा पैदल अपने घर लौटने के लिए ?
30 जनवरी को भारत में पहला कोरोना का मरीज केरल प्रान्त में मिला जो कि एक छात्र था और चीन के वुहान प्रान्त से लौटा था | इसके 5 दिन के अंदर केरल में ही 4 मरीज और मिले | ऐसी स्थति में भी पूरे 52 दिन बाद लॉक डाउन की घोषणा की गई वो भी इतनी अनियोजित जिसमे ये ही नहीं मालूम की हम को करना क्या है और हम करेंगे कैसे | हां ये बात सत्य है की कोरोना से बचाव का लॉक डाउन ही एक मात्र विकल्प है क्यूंकि इसकी दवाई और टीका पूरे विश्व में कही नहीं है |
सरकार ने इन 52 दिनों में लॉक डाउन का कोई मॉडल तैयार नहीं किया की अगर देश में लॉक डाउन लगाना पड़ा तो इससे आने वाली चुनौतियों का सामना कैसे किया जाएगा | एक ठोस मॉडल की परिकल्पना करने और उसको मूर्त रूप देने के लिए 52 दिन का समय आवश्यकता से अधिक है परन्तु सरकार की तरफ से लॉक डाउन की योजना के लिए कोई सुनियोजन नहीं किया गया | जिसका खामियाजा देश की गरीब जनता ने भोगा और लगातार भोग रही है और आगे भी देश और देश की जनता दोनों ही इसके दुष्परिणामों को भोगेंगे जो की लगभग उतने ही बुरे होंगे जितने कोरोना के फैलने से होते |
निःसदेह, ये एक सराहनीय सोच है की देश के नागरिकों की सुरक्षा, वरीयता क्रम में देश की अर्थव्यवस्था से ऊपर होनी चाहिए | देश के नागरिकों की सुरक्षा कोरोना से तो हो जाएगी परन्तु अनियोजित तरीकों से लॉक डाउन लगा कर उससे उत्पन्न हुए दुष्परिणामों से देश के नागरिकों की सुरक्षा करना भी एक बहुत बड़ा प्रश्न है |
![]() |
1947 और 2020 की स्थिति की तुलना |
लोगो के परिवार सहित पलायन को देख कर मैं 1947 में हुए देश के विभाजन की घटना के बारे में सोचने लगा की कुछ ऐसा ही रहा होगा देश का वो पलायन भी, जब लोग अपने मुल्क, अपने शहर, अपनी मिटटी को छोड़ कर रातो रात किसी अनजान शहर में आ के बस गए और अपने खुद के देश में ही शरणार्थी बन गए | निसंदेह आज का यह पलायन उतना क्रूर उतना भयावह और उतना वीभत्स नहीं था परन्तु आजादी के 74 साल बाद भी अगर किसी भी प्रकार का पलायन लोग करते है या करने के लिए मजबूर होते है, तो हम को ये सोचना होगा की क्या हम सच में आजाद हुए भी है या नहीं ?
बड़े ही दुःख और चिंता की बात है की आज़ादी के इतने सालो बाद भी हमारे देश में प्रवासी लोग शरणार्थी बन रहे है |
लेखक : डॉ. शैलेन्द्र सिंह
Very true
ReplyDeletethnx
Delete