कोरोना - संगरोध (QUARANTINE) एक मात्र विकल्प
कोरोना - संगरोध (QUARANTINE) एक मात्र विकल्प
कोरोना एक यक्ष प्रश्न की भांति हमारे सामने आ के खड़ा हो गया है जिसका उत्तर हमारे पास नहीं है | कोरोना के इतने भयावह परिणाम के लिए हम कतई तैयार नहीं थे | हमारे पास न तो इसका इलाज है और नहीं इसे रोकने हेतु कोई अंकुश, कोरोना किसी मदमस्त हाथी की भांति सब कुछ रोंद्ता हुआ आगे बढ़ रहा है | इसे रोकने के लिए सम्पूर्ण विश्व केवल संगरोध (QUARANTINE) की निति अपनाने का समर्थन कर रहा है क्या वास्तविकता में संगरोध ही वह निति है जो कोरोना के प्रसार पर अंकुश लगाएगी ?
मनुष्य के जीवन में तीन महत्वपूर्ण संस्थाए ऐसी है जो सतत रूप से उसके जीवन के समानांतर विद्यमान रहती है | शरीर, समाज एवं सृष्टि | इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना मनुष्य का अतिमुख्य कर्तव्य है | शरीर के लिए तप, समाज के लिए दान एवं सृष्टि के लिए यज्ञ को परिभाषित और प्रतिपादित किया गया है |
उक्त वर्णित तीनो संस्थाओ एवं उनकी आवश्यकताओं को समझने से पूर्व हमें दो प्रमुख भावों श्रद्धा और अहंकार को समझ लेना परम आवश्यक है |
श्रद्धा एक मात्र वह भाव है जिसके बिना हम तप, दान एवं यज्ञ के महत्व को समझ ही नहीं सकते है | अतः इन तीनो संस्थाओ एवं उनकी आवश्यकताओं की विवेचना से पूर्व हमें श्रद्धा के भाव की जानकारी होना अति आवश्यक है |
श्रद्धा सहित जब हम उक्त तीनो संस्थाओ एवं उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति को पूर्ण कर लेते है तब हमारे अंदर अहंकार का भाव उत्पन्न होता है | जिसकी विवेचना इस लेख के अंतिम चरण में की गई है |
उक्त वर्णित तीनो संस्थाओ एवं उनकी आवश्यकताओं को समझने से पूर्व हमें दो प्रमुख भावों श्रद्धा और अहंकार को समझ लेना परम आवश्यक है |
श्रद्धा एक मात्र वह भाव है जिसके बिना हम तप, दान एवं यज्ञ के महत्व को समझ ही नहीं सकते है | अतः इन तीनो संस्थाओ एवं उनकी आवश्यकताओं की विवेचना से पूर्व हमें श्रद्धा के भाव की जानकारी होना अति आवश्यक है |
श्रद्धा सहित जब हम उक्त तीनो संस्थाओ एवं उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति को पूर्ण कर लेते है तब हमारे अंदर अहंकार का भाव उत्पन्न होता है | जिसकी विवेचना इस लेख के अंतिम चरण में की गई है |
श्रद्धा
इनके अतिरिक्त मनुष्य के जीवन में एक अति महत्वपूर्ण तत्व और है जिसे "श्रद्धा" नाम से जाना जाता है,मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक स्तर पर श्रद्धा का होना अति आवश्यक है | ऐसा कहा जाता है की श्रद्धा रहित मनुष्य मृत सामान होता है | यह कतई आवश्यक नहीं की श्रद्धा केवल परमपिता परमात्मा के प्रति ही होनी चाहिए | श्रद्धा लौकिक अथवा पारलौकिक किसी भी प्रकार की हो सकती है वह किसी व्यक्ति एवं वस्तु के प्रति भी हो सकती है|श्रद्धा मनुष्य के स्वभाव के अनुसार उत्पन्न होती है | स्वभाव जनित श्रद्धा मनुष्य के स्वभाव, वातावरण, परिवार, माता-पिता, मित्र, संगत, कुसंगत आदि के प्रभाव द्वारा उदित भी होती है और परिवर्तित भी होती है | इस प्रकार की स्वभाव जनित श्रद्धा तीन प्रकार की होती है - सात्विक, राजसी एवं तामसी |
सात्विक श्रद्धा सदैव ईश्वर मय होती है यहाँ मनुष्य ये जानता है और मानता भी है की, एक मात्र शक्ति है जो की सम्पूर्ण विश्व को चलायमान रखती है | इस प्रकार की श्रद्धा में अनावश्यक कर्म-कांडो का कोई सरोकार नहीं है |
राजसी प्रकार की श्रद्धा ईश्वर पर न हो कर किसी आदर्श व्यक्ति पर होती है, मनुष्य ये मानता है की एक दिन मैं स्वयं को अपने आदर्श व्यक्ति जैसा बना लूंगा |
इसी प्रकार तामसी श्रद्धा में मनुष्य का आदर्श कोई सांसारिक व्यक्ति ही होता है परंतू वह व्यक्ति असामजिक प्रकार के कार्य करने वाला होता है |
मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले तप,दान एवं यज्ञ के मूल में श्रद्धा निहित होती है | जिस मनुष्य में जैसी प्रवृति की श्रद्धा होती है उसके द्वारा किये गए तप,दान एवं यज्ञ उसी अनुसार अपना परिणाम देते है |
तन एवं तप
सर्वप्रथम मनुष्य के शरीर के लिए तप को परिभाषित एवं प्रतिपादित किया गया है | तप का अर्थ है तपस्या, जूनून, जो की लक्ष्य प्राप्ति हेतु एक मानसिक अवस्था है | तप तीन प्रकार से वर्गीकृत किये गए है - सात्विक, राजसी एवं तामसी |
सात्विक तप वह होता है जब परिणाम को ध्यान में न रखते हुए बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना से किया जाता है |
राजसी तप में परिणाम प्राप्ति की कामेक्षा होती है, स्वार्थ एवं स्वयं का हित होता है परन्तु कोई दुर्भावना नहीं होती है |
तामसी तप, किसी व्यक्ति, समाज एवं सृष्टि का अहित करते हुए स्वयं के स्वार्थ के लिए किये जाते है |
समाज एवं दान
द्वितीय स्थान पर आता है समाज, जिसके लिये दान को परिभाषित एवं प्रतिपादित किया गया है | दान भी मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते है - सात्विक, राजसी एवं तामसी |
सात्विक दान वह है जिसमे यह भावना निहित होती है की "दान देना मनुष्य का परम कर्तव्य है " समाज के उत्थान के लिए अनुपकारी व्यक्ति को दिया जाता है जो की वास्तविकता में उस दान का पात्र है |
राजसी दान वह है जो की परिणाम की कामना सहित क्लेशपूर्वक प्रत्युपकार में ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने भूतकाल में हमें दान दिया हो अथवा भविष्य में जिससे दान प्राप्ति की उम्मीद हो |
तामसी दान वह दान है जो की अनुचित व्यक्ति को, अनुचित स्थान पर एवं अनुचित भावना से सत्कार रहित और तिरस्कार सहित दिया जाता है |
सृष्टि एवं यज्ञ
तृतीय स्थान सृष्टि के लिए आरक्षित है, सृष्टि के लिए यज्ञ को परिभाषित एवं प्रतिपादित किया गया है | यहाँ यज्ञ को पारम्परिक कर्मकाण्डीय यज्ञ समझना उचित नहीं होगा | यहाँ यज्ञ का अर्थ बहुत ही अलग एवं व्यापक है | यहाँ यज्ञ का अर्थ है- परस्पर सहयोग के साथ, निज स्वार्थ व अहंकार को त्याग कर, लोक हित में किया गया कर्तव्य ही यज्ञ है | यज्ञ भी तीन प्रकार के होते है - सात्विक, राजसी एवं तामसी |
वे समस्त कार्य / कर्तव्य जो परिणाम की लालसा नहीं रखते हुए सम्पूर्ण शास्त्रविधि से दान सहित किये जाते है, सात्विक यज्ञ कहलाते है |
वे समस्त कार्य / कर्तव्य जो परिणाम की लालसा रखते हुए व्यर्थ दिखावे सहित किये जाते है, राजसी यज्ञ कहलाते है |
वे समस्त कार्य / कर्तव्य जो परिणाम की लालसा रखते हुए कुबुद्धि एवं तांत्रिक सिद्धि हेतु किये जाते है तामसी यज्ञ कहलाते है |
अब हम यह कह सकते है की संसार के सभी मनुष्य अपने तप, दान, यज्ञ, कर्म, स्वभाव, आचार, विचार, आहार आदि के अनुसार इन्ही तीन भाग - सात्विक, राजसी एवं तामसी प्रवृतियों में विभाजित है |
वर्तमान परिदृश्य के अनुसार संसार में राजसी प्रवृति के मनुष्यो की संख्या अत्यधिक है उनके सभी तप, दान, यज्ञ, कर्म, स्वाभाव, आचार, विचार, आहार आदि राजसी प्रवृति अनुरूप ही है | संख्या में द्वितीय स्थान पर तामसी प्रवृति के मनुष्य आते है अंत में सबसे कम संख्या लगभग नगण्य सात्विक प्रवृति के मनुष्यों की है |
अहंकार
मनुष्य द्वारा किये गए किसी भी कर्म के कारण उसमे अहंकार का जन्म होता है, अहंकार ही एक मात्र प्रवृति है जो की आध्यात्म एवं आत्म चिंतन के मार्ग में प्रधान बाधक है | मनुष्य का अहंकार भी तीन प्रकार का होता है - सात्विक, राजसी एवं तामसी | जो मनुष्य जिस प्रवृति का होता है उसमे उसी के अनुरूप अहंकार उदय होता है |
अहंकार का मर्दन करने का कार्य परमपिता पमात्मा स्वयं करते है |
सात्विक प्रवृति से जनित सात्विक अहंकार को सत्कर्मो की बढ़ोतरी से ही समाप्त किया जा सकता है |
तामसी अहंकार को प्रत्यक्ष रूप से उस पर प्रहार कर के बलपूर्वक समाप्त किया जा सकता है |
सबसे कठिन होता है राजसी अहंकार को समाप्त करना क्यूंकि उसमे सात्विक एवं तामसी दोनों प्रकार की प्रवृतिया निहित विध्यमान होती है |
अब हम अपने विचारो को रामायण की कथा की ओर मोड़ते है | रामायण में सांकेतिक रूप में - सात्विक, राजसी एवं तामसी अहंकारों की परिभाषा क्रमशः लंकापति रावण, किष्किंधा नरेश वानरराज बाली एवं कुम्भकर्ण के रूप में दी गई है |
लंकापति रावण का अहंकार सात्विक है जो की उसके कुल, तप एवं त्याग से उत्पन्न हुआ था | इसे समाप्त करने के लिये भगवान विष्णु ने स्वयं श्री राम के रूप में जन्म लिया और बड़े ही तप, जप एवं कर्मो के फलस्वरूप रावण रुपी सात्विक अहंकार का संहार किया |
कुम्भकर्ण का अहंकार उसकी प्रवृति के अनुसार तामसी प्रकार का है जिसे श्री राम ने उस पर बलपूर्वक प्रहार करके समाप्त किया |
अब रामायण में संकेतिक रूप में वर्णित राजसी अहंकार के प्रतीक वानरराज बाली की बात करते है जिसे भगवान श्री राम ने बड़ी ही जटिल, दुर्लभ, और विवेचनात्मक युक्ति के प्रयोग से समाप्त किया | बाली रामायण का एक मात्र ऐसा पात्र था जिस पर संगरोध की युक्ति से ही अंकुश लगाया जा सकता था | संगरोध की युक्ति से ही बाली के प्रकोप से बचा जा सकता था अपितु इसी संगरोध की युक्ति के द्वारा ही उसे मारा भी जा सकता था | अन्यत्र ऐसी कोई युक्ति नहीं थी जिसके प्रयोग से बाली को मारा जा सकता हो |
विश्व का प्रथम संगरोध केंद्र (QUARANTINE CENTER) ऋष्यमूक पर्वत था जिस पर बाली का अनुज सुग्रीव निवास करता था ताकि बाली के प्रकोप से बचा रहे |
इसी संगरोध की निति को अपना कर भगवान् श्री राम ने बाली का वध पेड़ की ओट में खड़े हो कर किया | क्यूंकि राजसी अहंकार को संगरोध की निति से ही समाप्त किया जा सकता है |
विश्व का प्रथम संगरोध केंद्र (QUARANTINE CENTER) ऋष्यमूक पर्वत था जिस पर बाली का अनुज सुग्रीव निवास करता था ताकि बाली के प्रकोप से बचा रहे |
इसी संगरोध की निति को अपना कर भगवान् श्री राम ने बाली का वध पेड़ की ओट में खड़े हो कर किया | क्यूंकि राजसी अहंकार को संगरोध की निति से ही समाप्त किया जा सकता है |
वर्तमान परिदृश्य में देखे तो "कोरोना" नामक महामारी हमारे आस पास हमारे राजसी अहंकार के परिणाम स्वरुप, स्वयं पमात्मा के द्वारा सृजनित की गई है | ताकि हम ये जान ले की हमने जो कुछ भी अनैतिक कर्म परमात्मा द्वारा निर्मित मनुष्य यानि हम, और सम्पूर्ण सृष्टि के साथ किए है और करते जा रहे है वो हम तत्काल प्रभाव से बंद करे, हमने अपने निज स्वार्थ के लिए न केवल अपने स्वयं के जीवन के साथ, अपने समाज के साथ, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के साथ खिलवाड़ किया है जिसका परिणाम कोरोना विषाणु के रूप में अपने आस पास देख रहे है | उसके अत्यंत भयावह परिणाम हमे देखने को मिल रहे है और अभी न जाने और कितने समय तक देखने को मिलेंगे | इसलिए हमे चाहिए की अपनी राजसी और तामसी प्रवृतियों को समाप्त करे और सात्विक प्रवृतियों को पोषित करे |
जिस प्रकार संगरोध (QUARANTINE) की निति का पालन करके श्री राम ने राजसी अहंकार के पर्याय वानरराज बाली का संहार किया उसी प्रकार हम भी इस कोरोना नामक महामारी से बचाव एवं इसे समाप्त करने के लिए श्री राम के द्वारा दी गई संगरोध की युक्ति का अनुसरण करे जो की न केवल कोरोना के प्रसार पर अंकुश लगा सकती है अपितु उसे समाप्त भी कर सकती है |
लेखक - डॉ. शैलेन्द्र सिंह
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