"कोरोना - प्रकृति का पलटवार"
"कोरोना - प्रकृति का पलटवार"
प्रकृति अपने साथ किये हुए समस्त सकारात्मक एवं नकारात्मक व्यव्हार के उत्तर में सदैव पलटवार करती है। कोरोना भी प्रकृति का एक पलटवार ही है, लेकिन क्या यह सच में ही संतुलन बनाने के लिए किया गया पलटवार है या प्रकृति की मंशा कुछ और ही है?
पुराने वेद पुराणों में ऐसे कई ज़िक्र मिलते हैं जो शायद आज की परिस्थिति में सच होते दिख रहे हैं, मग़र एक बात ऐसी है जिसका उल्लेख कहीं नहीं है मगर उसकी सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता। और वो है मानव का इस धरती पर अनचाहा आगमन ! शायद मानव इस गृह की एक ऐसी उत्पत्ति है जो कभी वांछित ही नहीं थी !
बहुत पुराने किस्से कहानियों में आपने सुना होगा कि किसी एक शक्तिशाली राजा का राज पूरी धरती के सारे राज्यों पर चलता था। पर समय समय पर नए नए राज्यों का जन्म होना स्थिति को विकट कर दिया करता था क्योंकि वो नए राज्य उस राजा की प्रभुता को मानने से इंकार कर देते थे। अपने साम्राज्य के विस्तार में इस तरह की रुकावटों से निबटने के लिए एक तरक़ीब बनाई गयी जिसका नाम था अश्वमेघ यज्ञ ! इसमें वो राजा अपने राज्य के एक अश्व को कुछ रक्षकों के साथ पृथ्वी के हर राज्य के भ्रमण के लिए छोड़ देता था । असल में ये क्रिया एक शक्ति प्रर्दशन के तौर पर की जाती थी जिसमें राजा का उद्देश्य अपनी ताक़त और सम्प्रभुता दिखाना होता था। किसी भी राज्य का उस अश्व को पकड़ लेना सीधा सीधा उसकी अधीनता को अस्वीकार कर देना और उस शक्तिशाली राजा को चुनौती देना होता था। और जो कोई भी ऐसा दुस्साहस करता था उसके राज्य का समूल नाश कर दिया जाता था। अर्थात जो राज्य सर झुका कर उस राजा की अधीनता स्वीकार कर लिया करते थे वो बच जाते थे और बाकि एक तूफ़ान में तिनके की भाँती उड़ जाते थे।
अब अगर इसी परपेक्षय में देखा जाये तो ये मानव प्रजाति भी अलग अलग राज्यों के समान ही है और प्रकृति उस शक्तिशाली राजा के समान जिसकी हुकूमत खुले आम पूरी धरती पर चलती है। मगर कई इंसानो को शायद यह भ्रम हो गया कि वही इस धरती के पालनहार हैं जो प्रकृति को अपने अधीन कर लेंगे। और बस शुरू कर दिया उन्होंने सुन्दर वनों को काटना , नदियां और वातावरण प्रदूषित करना , जानवरों और पक्षिओं का आहार करना। धीरे धीरे प्रकृति के स्त्रोतों का दोहन करना जो कि मात्र उन्हीं का ही नहीं अपितु बाकि प्राणियों का भी समान अधिकार है। संभवतः यही सब देख कर प्रकति को एक अश्वमेघ यज्ञ प्रारंभ करना पड़ा। मानव प्रजाति को यह दर्शाने के लिए कि उसकी बादशाहत वर्तमान में भी विद्यमान है उसने अब अपना अश्व विचरण करने के लिए छोड़ दिया है। और ये अश्व और कोई नहीं बल्कि कोरोना ही है। अब जो भी मानव इससे लड़ने या इसे कमज़ोर समझ कर पकड़ने की भूल करेगा वो सीधी चुनौती होगी प्रकृति की ताक़त को। और उसके बाद का हश्र हम सब देख ही रहे हैं कि कितना भयानक हो सकता है।
अच्छा इसका एक और पहलु भी है जो मैंने शुरुवात में कहा था और जो इससे भी भयावह है। वो यह कि कहीं मानव प्रजाति की इस धरती पर उत्पत्ति, मात्र एक ग़लती तो नहीं ! कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्विकता में कोरोना नहीं बल्कि मानव ही इस धरती का विषाणु हो और कोरोना इस विषाणु को ख़त्म करने की एक औषधि ! थोड़ा सोचा जाये तो ये पूरी तरह से अतार्किक भी नहीं लगता है। आख़िर हर प्राणी इस प्रकृति के चक्र में कहीं न कहीं उपयुक्त है। किसी न किसी तरीक़े से वो इस प्रकृति को संतुलित बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाता है सिवाय मानव के। इस गृह पर हर प्राणी बहुत शीघ्र ही अपने वातावरण के साथ सामंजस्य बैठा लेता है। उसे पता होता है कि कितने क्षेत्र में जीवन बिताना है। कितने प्राकृतिक साधनों का दोहन करना है जैसे भोजन , पानी आदि। मगर मानव की इच्छाओं की कोई सीमा नहीं है। बहुत तेज़ी से ये प्रजाति प्रसार करती है। छोटे से क्षेत्र से कई गांव, फिर कई शहर, फिर कई देश और अभी भी प्रसार निरंतर है। साथ ही साधनों का दोहन भी उसी अनुपात में तेज़ी से बढ़ता हुआ। अब यक्ष प्रश्न ये है कि प्रकृति एक ऐसी प्रजाति की योजना क्यों बनाएगी जो उसी के बनाये हुए संतुलन को इतनी तेज़ी से असंतुलित कर दे। तो इसका उत्तर है कि ऐसी योजना कभी बनी ही नहीं थी ! मानव प्रजाति का इस धरती पर जन्म एक संयोग मात्र है और कुछ नहीं। और ये इस गृह के लिए मात्र एक विषाणु है जो शीघ्रता से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता चला जा रहा है। यही सब देखते हुए प्रकृति ने इस विषाणु के नाश के लिए कोरोना रूपी औषधि वायुमंडल में छोड़ दिया है जो धीरे धीरे इस धरती को मानव रूपी विषाणु से मुक्त कर देगा।
हम इतने विचारहीन हो गए थे कि हमें बस चीज़ो की होड़ रह गयी थी। फिर चाहे वो पैसा कमाना हो । या संसाधनों पर अधित्व जाताना। हम ये भूल ही गए थे कि हम इस धरती पर केवल एक अतिथि की भाँती आये हैं जहाँ से विदाई होनी पूर्णतः निश्चित है। अब समय आया है इन तथ्यों पर ध्यान देकर कुछ परिवर्तन कर देने का। सोचा चाहे किसी भी पहलु से जाये मग़र तात्पर्य एक ही निकलेगा। अगर हमने शीघ्र ही इस प्रकृति के सामने नतमस्तक हो कर आवश्यकता और आकांक्षा में अंतर नहीं समझा तो इस सम्पूर्ण मानव प्रजाति का विनाश निश्चित है। लेकिन इससे भी बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि कहीं इस वास्तविकता को स्वीकार करने में हमने बहुत देर तो नहीं कर दी है ! कहीं हमने अपनी नादानी में वो अश्व पकड़ तो नहीं लिया है ! या कहीं हम विषाणुओं का नाश अब अनिवार्य तो नहीं हो गया है ! फिलहाल इन सब विचारों का स्पष्टीकरण भविष्य के गर्भ में है। हम वर्त्तमान परिस्थिति से शिक्षा लेकर प्रकति की अधीनता को स्वीकार करेंगे या फिर अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए विषाणुओं की तरह नष्ट हो जायेंगे, ये तो अब आने वाला समय ही बताएगा।
लेखक :- डॉ. शैलेन्द्र सिंह
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