"कोरोना- एक आध्यात्मिक परिदृश्य"


"कोरोना- एक आध्यात्मिक परिदृश्य"

कभी सोचा है आपने कि यह कोरोना वायरस कहाँ से आया है क्यों इतना घातक हो रहा है की सम्पूर्ण मानव जाति के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है? क्या यह परमपिता परमात्मा का कोई सन्देश है जिसे हम समझ नहीं पा रहे है?





प्राचीन भारतीय वैदिक पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के अनेक अवतार एवं अनेक रूप हैं जो उन्होंने समय समय पर विभिन्न देश काल परिस्तिथि अनुसार धारण किये है, जिन में से अधिकतर से हम आप परिचित है | उन्ही अनेक रूपों में से भगवान् विष्णु के दो विशेष रूप यम और काम की विवेचना हम आज यहाँ करने जा रहे है |  इन्ही दो रूपों ने सृष्टि के साम्य और पुनर्जन्म के चक्र को समन्वयित कर रखा है| जहा एक ओर काम जीवन का पर्याय है वही दूसरी ओर यम मृत्यु का पर्याय है | जहा एक ओर काम कहता है की मृत्यु स्थाई नहीं है वही दूसरी ओर यम कहता है की जीवन स्थाई नहीं है | ये दोनों अपना अपना कार्य बड़ी ही निष्ठा से निभा रहे है, इन्होने भौतिक यथार्थ को आध्यात्मिक यथार्थ से पृथक कर रखा है | स्थूल से सूक्ष्म और पुनः सूक्ष्म से स्थूल में परिवर्तन ही सृष्टि का नियम है एवं यही एक शाश्वत यात्रा प्रत्येक जीव को अपने जीवन  चक्र को पूर्ण करने हेतु करनी पड़ती है |



इसके अर्ध चक्र में जीव अपनी माता के गर्भ में आता है और सूक्ष्म से स्थूल रूप प्राप्त करता है | यही से वह आध्यात्मिक यथार्थ से भौतिक यथार्थ की ओर पलायन करता है एवं स्थूल से पुनः सूक्ष्म की ओर उसकी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है, इस अवस्था का द्योतक काम है |



सूक्ष्म से स्थूल होते ही उसमे इंद्री जागरण होता है और वह भौतिक यथार्थ में मग्न हो जाता है जिससे उसमे भोग की प्रवर्ति जन्म लेती है, वह स्वयं को सर्व शक्तिमान मानने लगता है और प्रकृति का दोहन प्रारम्भ कर देता है | इस अवस्था में वह यह भूल जाता है कि जो वह जी रहा है वह सम्पूर्ण जीवन चक्र का अर्ध भाग है | अभी अगला अर्ध भाग शेष है जहा उसकी भेंट विष्णु के दूसरे रूप यम अर्थात मृत्यु से होनी है | यहाँ स्थूल पुनः सूक्ष्म हो जाता है और भौतिक यथार्थ को त्याग के आध्यात्मिक यथार्थ में विलीन हो जाता है | यहाँ से उसकी एक अनंत यात्रा प्रारम्भ होती है | यह जीवन चक्र अनवरत चलायमान रहता है |



मनुष्य अपने जीवन काल के अर्ध चक्र में स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा और उसने प्रकृति पर अपना आधिपत्य स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया | मनुष्य की प्रवर्ति है, की वह स्वयं की वर्चस्व स्थापना एवं प्रदर्शन हेतु उपयोग से अधिक संशाधनो  का अनावश्यक संग्रह करके अधिशेष को निर्मित करता है | ऐसा करते समय वह ये भूल जाता है  कि  जिस परम शक्ति ने उसका निर्माण कर संसार में भेजा है  उसी शक्ति ने बाकि संसाधनों का निर्माण भी किया है  जिन पर संसार के समस्त जीवो का समान अधिकार है |



परमेश्वर के इस साम्य को मनुष्य ने तोड दिया और निरंतर तोड़ रहा है | मनुष्य अपनी इस स्थूलता में और भौतिक यथार्थ में इतना लिप्त हो गया की वह ये भूल गया कि अभी जीवन काल का अर्ध चक्र बाकि है जहा कुछ भी भौतिक नहीं हे सब कुछ सूक्ष्म है, शून्य है | मनुष्य ये भूल गया की जिस मायापति ने उसका और सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण किया हे वह कुछ ऐसी माया भी कर सकते है जब मनुष्य को ये भान हो जाए की वह बहुत बोना और कमजोर है और जिस भौतिक यथार्थ को उसने सर्वस्व मान कर पकड़  रखा है वह नश्वर है |



ऐसा प्रतीत होता है की मायापति की माया इस विषाणु "कोरोना" के रूप में प्रारम्भ हो चुकी है ताकि मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं  के प्रसार को विराम दिया जाए |  परमेश्वर ये चाहते है की मनुष्य को इस स्थूल अवस्था में रहते हुए ही भविष्य में आने वाली सूक्ष्म अवस्था का ज्ञान करा दिया जाए |
विश्व में आज तक जितने भी विषाणु महामारी के रूप में जन्मे  है|   उनमे से सबसे कम मृत्यु दर होने के बाद भी इतनी भयावह स्तिथि का प्रतिपादन आज तक नहीं हुआ है कि सम्पूर्ण मानव जाति के अनावश्यक प्रसार को रोका गया हो,  लोग अपने अपने घरो में सिमित हो गए है उनकी यह भ्रान्ति चकना चूर होने लगी है की वह सर्वशक्तिमान हे, अनंत है, साधन संपन्न है  | आज मनुष्य से उसका भौतिक यथार्थ छूटने लगा है वह ये जानने लगा है की वह स्थूल होते हुए भी सूक्ष्म है |
आज की परिस्तिथि में सर्वसत्य प्रलय वाक्य प्रतिपादित होता है कि  "अनंत ही शून्य है" || 


लेखक :- डॉ. शैलेन्द्र सिंह 

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